अंबेडकर ने ‘संयुक्त राज्य भारत’ का अपना प्रस्ताव संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष का कार्य प्रारंभ करने से सात माह पूर्व प्रस्तुत किया था। उस समय वह मौलिक अधिकारों के लिए बनाई गई एक उपसमिति के एक सदस्य भर थे। 27 फरवरी, 1947 को अपनी पहली बैठक के दौरान उपसमिति ने सदस्यों को अपने विचार लिखित में प्रस्तुत करने को कहा। अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने अपने सहयोगियों को सलाह दी कि वे ‘‘नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए अमरीका के मॉडल को ध्यान में रखकर विचार प्रस्तुत करें…

[भानु धमीजा]

अंबेडकर की भारत के संविधान के प्रति वास्तविक प्रतिकल्पना संविधान सभा के वृत्तांत में छिपी है। उन्होंने इसे ‘संयुक्त राज्य भारत’ कहा है। उनके प्रस्ताव की रूपरेखा औपचारिक रूप से सभा की एक उपसमिति को सौंपी गई थी। परंतु उनका आलेख चर्चा के लिए नहीं चुना गया। अंबेडकर के विचारोें से न केवल संविधान मूलतः परिवर्तित हो जाता, बल्कि इनसे भारत की दिशा ही बदल जाती। इसका यह अर्थ नहीं कि उनके सभी विचार बहुत अच्छे थे, पर उनमें से कुछ सुधार अवश्य लाते।

अंबेडकर ने ‘संयुक्त राज्य भारत’ का अपना प्रस्ताव संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष का कार्य प्रारंभ करने से सात माह पूर्व प्रस्तुत किया था। उस समय वह मौलिक अधिकारों के लिए बनाई गई एक उपसमिति के एक सदस्य भर थे। 27 फरवरी, 1947 को अपनी पहली बैठक के दौरान उपसमिति ने सदस्यों को अपने विचार लिखित में प्रस्तुत करने को कहा। अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने अपने सहयोगियों को सलाह दी कि वे ‘‘नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए अमरीका के मॉडल को ध्यान में रखकर विचार प्रस्तुत करें।’’ अंबेडकर, सर अल्लादी, केएम मुंशी और हरनाम सिंह ने अपने ज्ञापन भेजे। लेकिन 24 मार्च की अहम बैठक के दौरान, जब उपसमिति के कार्य का आधार तय किया जाना था, अंबेडकर अनुपस्थित रहे। मुंशी का प्रारूप चुन लिया गया और बाकी सब विचार धरे रह गए।

अंबेडकर द्वारा प्रस्तावित यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया (यूएसआई) की योजना संसदीय प्रणाली के उनके पुराने विरोध के अनुरूप ही थी। वह संसदीय व्यवस्था को भारतीय परिस्थितियों के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त बताकर इसको सार्वजनिक तौर पर बुरा-भला कह चुके थे। उन्होंने संयुक्त राज्य भारत के लिए जो प्रारूप पेश किया, वह कई प्रकार से अमरीका की अध्यक्षीय व्यवस्था जैसा था। यह एक वास्तविक संघ था। इसके कार्यकारी का कार्यकाल निश्चित था। इसके सभी कार्यकारी पदाधिकारी निर्वाचित थे, यद्यपि वे समूची विधानपालिका द्वारा अप्रत्यक्ष तौर पर चुने जाते, न कि सिर्फ बहुमत दल द्वारा। न्यायिक शक्ति एक संपूर्ण स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायालय में निहित थी और मौलिक अधिकारों की सूची अमरीका के ‘बिल ऑफ राइट्स’ के समान। यहां तक कि अंबेडकर की भाषा भी अमरीका के ‘डिक्लेरेशन ऑफ इंडिपेंडेंस’ की याद दिलाती थी। उन्होंने लिखा कि ‘‘ब्रितानी व्यवस्था जैसी कार्यकारिणी भारत में अल्पसंख्यकों के जीवन, स्वतंत्रता और प्रसन्नता की तलाश के प्रति खतरे से परिपूर्ण होगी।’’

‘‘अगर ब्रिटिश व्यवस्था की नकल की गई तो इसका अर्थ सभी कार्यकारी शक्तियों को स्थायी रूप से सांप्रदायिक बहुसंख्यकों को सौंपना होगा।’’
– अंबेडकर

अंबेडकर की मुख्य चिंता कार्यकारिणी की शक्तियों के प्रति थी। वह इसलिए कि उनके अनुसार इसका प्रारूप न केवल अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए, बल्कि सरकार में स्थायित्व लाने के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण था। ‘‘यह स्पष्ट है’’, उन्होंने लिखा कि ‘‘अगर ब्रिटिश व्यवस्था की नकल की गई तो इसका अर्थ सभी कार्यकारी शक्तियों को स्थायी रूप से सांप्रदायिक बहुसंख्यकों को सौंपना होगा।’’ सरकार की स्थिरता के संबंध में अंबेडकर ने कहा, ‘‘बहुत कम संभावना है’’ कि ब्रितानी कैबिनेट व्यवस्था भारत में एक स्थायी सरकार दे पाए। ‘‘जातियों एवं संप्रदायों के टकरावों को देखते हुए पार्टियों और गुटों की बहुतायत होना निश्चित है… अगर ऐसा होता है तो संभव ही नहीं, पक्का है कि संवैधानिक कार्यकारी व्यवस्था में… भारत को अस्थिरता झेलनी पड़ेगी।’’ यही कारण था कि संयुक्त राज्य भारत के लिए ‘‘अमरीकी व्यवस्था की कार्यकारिणी को बतौर मॉडल चुना गया,’’ अंबेडकर ने कहा।

यह पहली मर्तबा नहीं था जब अंबेडकर ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की निंदा की थी। 1945 में भारत की मूलभूत समस्याओं पर भाषण के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘‘बहुमत का शासन सैद्धांतिक रूप से असमर्थनीय और व्यावहारिक रूप से अनुचितहै।’’ उन्होंने कहा कि भारत की सरकार इन सिद्धांतों पर निर्भर होनी चाहिए- एक ‘‘कार्यकारी शक्ति विधायी शक्ति से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो,’’ दूसरे ‘‘कार्यकारिणी बहुमत वाले दल की एक समिति न हो’’ और ‘‘कार्यकारिणी गैर-संसदीय हो ताकि उसे हटाया न जा सके।’’

अंबेडकर ने भी संसदीय प्रणाली को भारत के लिए सर्वथा अनुपयुक्त पाया, ठीक उसी प्रकार जैसे कि जिन्ना ने, जब 1937 में नेहरू ने पहली विशुद्ध भारतीयों की प्रांतीय सरकारों में किसी अन्य पार्टी को शामिल करने से इनकार कर दिया। उस घटनाक्रम के बाद जहां जिन्ना पाकिस्तान की ओर मुड़ गए, वहीं अंबेडकर इस हद तक गए कि स्वतंत्रता के बजाय ब्रितानी शासन के समर्थन में उतर पड़े। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों का शासन संसदीय प्रणाली वाली ‘केवल भारतीयों की सरकारों’ं से बेहतर था। यहां तक कि वह अपना यह सुझाव अंग्रेजों तक ले गए। एक बैठक की गुप्त रिपोर्ट में ब्रिटिश वायसराय ने अंबेडकर का विरोध ऐसे दर्ज किया, ‘‘संसदीय प्रणाली भारत में सफल नहीं होगी।’’ ‘‘मैंने उनसे पूछा कि क्या वह ये सब जनता के बीच कहेंगे,’’ वायसराय ने लिखा, ‘‘इसके जवाब में उन्होंने कहा कि वह पूरे जोर के साथ यह कहने के लिए बिलकुल तैयार हैं।’’

‘‘जब तक हिंदू और मुस्लिम साथ न मिलें, वे अनुसूचित जातियों के सहयोग के बिना सरकार नहीं बना सकते, लेकिन अगर इनमें से कोई एक अनुसूचित जातियों के साथ मिल जाए तो शासन कायम किया जा सकता है।’’
– डा. राजेंद्र प्रसाद

सबसे बड़ा कारण कि संयुक्त राज्य भारत का प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया, अंबेडकर की यह जिद थी कि बहुमत को कार्यकारी शक्तियां अल्पमत दलों के साथ बांटनी चाहिएं। लेकिन केवल यही एक कारण नहीं था। अंबेडकर ने टुकड़ों में बंटे समाज व एक संपूर्ण समाजवादी राज्य का वर्णन किया था। उन्होंने लिखा, ‘‘संयुक्त राज्य भारत अपने संविधान में यह घोषित करेगा… कि प्रमुख उद्योग… सरकार के होंगे और उसी के द्वारा चलाए जाएंगे,’’ कि ‘‘कृषि एक राष्ट्रीय उद्योग होगा;’’ और ‘‘बीमा क्षेत्र पर सरकार का वर्चस्व होगा।’’ इतना ही नहीं। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि ‘‘कैबिनेट में अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों का चुनाव केवल उस अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा किया जाएगा।’’

वर्ग आधारित निर्वाचन और आरक्षण के ये विचार भारतीयों द्वारा पहले ही अस्वीकार किए जा चुके थे। मुस्लिमोें के लिए अलग निर्वाचन सूचियों ने देश को काफी नुकसान पहुंचाया था। और आरक्षण के संबंध में विचार था कि व्यवस्था योग्यता पर आधारित होनी चाहिए। विधायिका में आरक्षण से संबंधित अंबेडकर का एक प्रस्ताव पहले ही राजनीतिक कारणों से नामंजूर किया जा चुका था। 1945 में उन्होंने सुझाव दिया था कि राष्ट्रीय विधायिका में किसी भी समुदाय को 40 फीसदी से ज्यादा प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाना चाहिए। राजेंद्र प्रसाद ने इसे तुरंत नामंजूर कर दिया। डा. प्रसाद ने कहा कि ‘‘जब तक हिंदू और मुस्लिम साथ न मिलें, वे अनुसूचित जातियों के सहयोग के बिना सरकार नहीं बना सकते, लेकिन अगर इनमें से कोई एक अनुसूचित जातियों के साथ मिल जाए तो शासन कायम किया जा सकता है।’’

परिणामस्वरूप अंबेडकर के अवांछित विचारों के साथ-साथ उनके बहुमूल्य सुझाव भी ठिकाने लगा दिए गए। जैसे कि एक गैर-संसदीय कार्यकारिणी की व्यवस्था व उनका संयुक्त राज्य भारत का प्रस्ताव। सरकार की शक्तियों को बांटने के साथ स्थायित्व उपलब्ध करवाना दोनों नेक लक्ष्य थे।

यह लेख पहले दिव्य हिमाचल 23 जून 2016 के अंक में प्रकाशित।