‘विविधता में एकता’ बनाए रखने के लिए भारत को धार्मिक समानता भी कायम करनी होगी। हमें धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा की सख्त आवश्यकता है। जो धार्मिक स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता, और धर्म व सरकार के पृथक्करण पर आधारित हो …

(भानु धमीजा)

भारत की विख्यात ‘विविधता में एकता’ संकट में है। बेशक देश को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए, परंतु लगभग दर्जन भर विद्रोहों के नासूर या अलगाववादी आंदोलन जारी हैं। निर्वतमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी हाल ही में स्पष्ट कह गए हैं कि देश के अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। देश के पूर्वी हिस्से के लोगों पर पश्चिम में हमले हो चुके हैं, और दक्षिण भारतीय स्वयं को उत्तर में अवांछनीय महसूस करते हैं। कुछ राज्यों के लोग समूचे जातीय समुदायों को निकाल बाहर करने का प्रयास कर चुके हैं, जैसे कि कश्मीर से पंडित, असम से बंगाली। हर जाति आरक्षण या वित्तीय अनुदान के माध्यम से विशिष्ट सत्कार की मांग उठा रही है। और राज्य लगभग हर चीज – पानी, क्षेत्र, राजधानी, भाषा, ध्वज, आदि – के लिए आपस में लड़ते रहे हैं।

समस्या यह है कि भारत ने अपनी विविधता के प्रबंधन को कभी भी एक उचित व्यवस्था विकसित ही नहीं की।

अव्यवस्थित सोच ने समुदायों में केवल तुष्टिकरण, हिंसा, और अलगाव की भावना को बढ़ावा दिया है। अगर भारत में राष्ट्रीय एकीकरण और प्रभुत्व के सिद्ध सिद्धांतों, स्थानीय स्वयत्तता, और जवाबदेही, और कानून के समक्ष समानता पर आधारित एक शासन व्यवस्था होती, तो देश अधिक संगठित होता।

राष्ट्रीय एकीकरण: एक राष्ट्र-एक संविधान

प्रत्येक राज्य के निवासियों को भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी चाहिए। हमारा संविधान बिना राज्य सरकारों द्वारा प्रमाणित किए अंगीकार कर लिया गया था। इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमरीका में संविधान अंगीकार करने के लिए यह एक आवश्यक शर्त थी कि राज्य इसे पुष्ट करेंगे। इससे न केवल राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा हुई, बल्कि उनके संविधान में महत्त्वपूर्ण सुधार, जैसे कि अधिकार पत्र (बिल ऑफ राइट्स), भी हो पाए।

कश्मीर सहित, हर राज्य सरकार को यह प्रमाणित करना चाहिए कि हमारे संविधान के अंतर्गत भारतीय संघ से अलग होना कोई विकल्प नहीं है। और यह कि वे संविधान के प्रत्येक प्रावधान की अनुपालना करते हैं।

मेरे शेष प्रस्ताव को ध्यान में रखते हुए यह असंभव बात नहीं। कश्मीर के लिए भी नहीं। वैसे भी हम संघ के एक राज्य की वजह से यह नहीं कर सकते कि शेष राष्ट्र को ‘एक देश-एक संविधान’ के सिद्धांत पर निष्ठा के लाभ न मिलें।

राष्ट्रीय प्रभुत्व: केंद्रीय कानून राज्य कानूनों से ऊपर

भारत की संसद का विधानसभाओं पर प्रभुत्व होना ही चाहिए। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय को निर्णय देना पड़ा कि विवाद की स्थिति में केंद्रीय कानून राज्य के कानूनों से ऊपर है। परंतु ऐसे विवाद अकसर खड़े होते हैं क्योंकि भारत का संविधान केंद्र व राज्य दोनों को कई शक्तियां (overlapping powers) देने की अव्यवहारिकता का पालन करता है। इसके फलस्वरूप अकसर केंद्रीय कानून राज्यों पर वित्तीय बोझ डाल देते हैं, उन्हें अपनी आवश्यकता के अनुसार कानून सुधारने का अवसर नहीं देते, या इससे भी बढ़कर, राज्यों के अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन करते हैं।

हमें अपने संविधान की ‘समवर्ती सूची’ हटा देनी चाहिए। यह अत्यधिक नुकसान पहुंचा रही है क्योंकि यह न केवल सरकारों को उत्तरदायित्व से भागने की इजाजत देती है, बल्कि कई कानूनों को अव्यवहारिक भी बनाती है। एमआर माधवन, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के प्रमुख ने लिखा है कि भारत को ‘‘समवर्ती सूची के मद्देनजर संघवाद और इसके विषयों पर एक विस्तृत सार्वजनिक बहस की आवश्यकता’’ है।

भारत भी अमरीकी संविधान के समान केंद्रीय व राज्य दोनों सरकारों को केवल आवश्यक शक्तियां देकर बेहतर प्रदर्शन कर सकता है।

केवल ये शक्तियां : टैक्स लगाना, ऋण लेना, बैंकों और निगमों को अधिकार स्थापित करना, न्यायालय स्थापित करना, और जन भलाई के लिए संपत्ति अधिग्रहीत करना।

परंतु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि भारत के संविधान को राष्ट्रीय प्रभुत्व की घोषणा भी करनी चाहिए। माधव खोसला, संवैधानिक विशेषज्ञ का कहना है कि ‘‘भारतीय संविधान केंद्र को राज्यों से अधिक शक्तियां तो देता है परंतु यह संघ के प्रभुत्व की स्थापना नहीं करता।’’ इसके विपरीत ‘‘राष्ट्रीय प्रभुत्व’’ अमरीकी संविधान के आधारभूत सिद्धांतों में से एक है। इसका अनुच्छेद VI संविधान के अंतर्गत पारित कानूनों और संधियों को ‘‘देश का सर्वोच्च कानून’’ घोषित करता है।

स्थानीय स्वायत्तता: समस्त शक्तियां-सरकार की सभी शाखाएं

राज्य और स्थानीय सरकारों को अपने मसले स्वयं सुलझाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए ताकि उन्हें जवाबदेह ठहराया जा सके। स्थानीय स्वायत्तता – जिसका अर्थ केवल स्वायत्त शासन (स्वराज) है, स्वाधीनता नहीं – के अभाव में राज्यों को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराना असंभव है। इस सिद्धांत की सफलता के लिए आवश्यक है कि राज्य सरकार की शक्तियां केंद्र की शक्तियों से परस्पर व्याप्त (overlap) न हों। साथ ही, राज्य आत्मनिर्भर हों, और उनकी सरकारें केवल जनता के प्रति उत्तरदायी हों, केंद्रीय सत्ता या पार्टी आकाओं के प्रति नहीं।

लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के अनुसार हमें जनता पर विश्वास करना चाहिए कि वह जानती है कि उसके लिए क्या सही है।

यहां मैं केवल शक्तियों के बंटवारे की व्याख्या करता हूं। भारत का संविधान केंद्र को 140 से अधिक विशिष्ट शक्तियां प्रदान करता है, साथ ही वे सभी शक्तियां भी जिन्हें खास तौर पर नहीं बांटा गया है। यह केंद्र को शासन के सभी क्षेत्रों में बड़ी भूमिका दे देता है जो स्थानीय और राज्यों सरकारों से निश्चित रूप से हस्तक्षेप करती हैं।

इसके ठीक विपरीत करने से हमें अधिक लाभ होगा। राज्यों को अधिक शक्तियां दें और सभी अवशिष्ट शक्तियां (residuary powers) भी उनके लिए छोड़ दें। अमरीकी संविधान ठीक यही करता है। राष्ट्रीय सरकार को केवल कुछ मुट्ठी भर शक्तियां ही देनी चाहिएं : अंतरराज्यीय और विदेशी व्यापार पर नियंत्रण करना, ऋण लेना, और करेंसी बनाना, युद्ध की घोषणा करना, और सेनाएं रखना।

क्योंकि राज्यों को अवशिष्ट शक्तियां दी गई हैं, उनकी विशेष शक्तियां कुछ ही होनी चाहिएं: चुनाव करवाना, स्थानीय सरकारों की स्थापना करना, राज्य के भीतर व्यापार का नियंत्रण करना, जनस्वास्थ्य की रक्षा करना, सुरक्षा और रीति-रिवाज का संरक्षण करना।

राज्य सरकारों को स्वायत्तता प्रदान करना भारतीयों को चिंतित करता है। विशेषतया कश्मीर के संबंध में। शायद इसलिए कि उन्हें डर है कि यह अलगाव की चर्चा को बढ़ावा देता है। परंतु धारा 370 ने पहले ही कश्मीर को स्थानीय मसलों पर नियंत्रण दे रखा है। यह व्यवस्था अन्य कारकों के कारण कामयाब नहीं हो पाई। जैसे कि यह ऊपर बताए गए राष्ट्रीय एकता और प्रभुत्व के सिद्धांत का अनुसरण नहीं कर पाई; यह ईमानदारी से लागू नहीं की गई थी; कश्मीर की सरकारें आत्मनिर्भर नहीं थीं; केंद्रीय दखलअंदाजी समस्या बनी रही; और फिर पाकिस्तान ने हालात बिगाड़े।

स्थानीय स्वायत्तता के सिद्धांत के तहत यह भी आवश्यक है कि राज्य सरकारों की अपनी न्यायपालिका हो। इससे न्यायालयों का विकेंद्रीकरण होगा। और न्याय में विलंब और भ्रष्टाचार से संबंधित भारत की बड़ी समस्याएं कम होंगी।

इसी प्रकार, यह सिद्धांत अधिकार देता है कि समस्त चुनाव राज्यों द्वारा स्वयं करवाए जाएं। जब सभी जनप्रतिनिधि – विधायक और सांसद – राज्य के भीतर स्थित चुनाव क्षेत्रों से ही आते हों, तो उन्हें केंद्रीय निकाय द्वारा निर्वाचित करना स्थानीय जनता के प्रति अवविश्वास को दर्शाता है।

धार्मिक समानता: समान संहिता और धर्म व सरकार का पृथक्करण
(
Separation of Religion and Government)

हमारी ‘विविधता में एकता’ बनाए रखने के लिए भारत को धार्मिक समानता भी कायम करनी होगी। मैंने हाल ही में लिखा है कि हमें धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा की सख्त आवश्यकता है। जो धार्मिक स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता, और धर्म व सरकार के पृथक्करण पर आधारित हो।

धार्मिक स्वतंत्रता हमारे संविधान में मजबूती से निहित है। परंतु एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता 70 वर्षों से संविधान का एक ‘निर्देशक सिद्धांत’ बन कर रह गई है। अब यह हमारे धार्मिक बंधुत्व के लिए अत्यंत आवश्यक है।

जहां तक धर्म और सरकार के पृथक्करण की बात है, भारत को भी अमरीकी संविधान के प्रथम संशोधन की तर्ज पर एक संवैधानिक संशोधन पारित करना चाहिए कि संसद ‘‘कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगी जो धर्म की स्थापना करे, या उसकी स्वतंत्र पालना पर रोक लगाए।’’

हम सब भारत की ‘विविधता में एकता’ पर गर्व करते हैं। पर समय आ गया है कि हम इसकी सुरक्षा के लिए कुछ प्रयास भी करें।


[लेखक चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं]

यह लेख पहले दिव्य हिमाचल 13 सितम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित।

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