हम और हमारा लोकतंत्र शोषण का शिकार हुए हैं और लगातार हो रहे हैं। यदि हम इस शोषण की चर्चा नहीं करेंगे तो हम अपने साथ, अपने देशवासियों के साथ और अपने देश के साथ अन्याय करेंगे…

 

पी. के. खुराना

भारतवर्ष इस समय एक तूफान से गुज़र रहा है। मनोरंजन उद्योग और मीडिया उद्योग ही नहीं, कई बड़े राजनीतिज्ञ भी इस तूफान से थर्राए हुए हैं। अंग्रेजी के दो शब्दों “मी” और “टू” के जोड़ से बना शब्दा “मी-टू”, यानी, “मैं भी” उन महिलाओं की आवाज बना है जिन्हें उनकी इच्छा के बिना शारीरिक शोषण का शिकार बनना पड़ा या जिनके साथ शारीरिक शोषण की असफल कोशिश हुई। “मी-टू” आज ऐसे तूफान का रूप ले चुका है जिसने भारतवर्ष ही नहीं, विश्व भर की कई बड़ी हस्तियों को धराशायी कर दिया है।

समस्या यह है कि खुद मैं भी उन लोगों में शामिल हूं जिन्हें शोषण का शिकार होना पड़ा। फर्क सिर्फ इतना है कि न मेरा शारीरिक शोषण हुआ, न मैंने किसी का शारीरिक शोषण करने की कभी कोई कोशिश की। पर मेरा देश, मेरे देश की धरती और हमारा लोकतंत्र शोषण का शिकार हुए हैं और लगातार हो रहे हैं, और यदि हम इस शोषण की चर्चा नहीं करेंगे तो हम अपने साथ, अपने देशवासियों के साथ और अपने देश के साथ अन्याय करेंगे।

विकास की चाह में पहाड़ों में सड़कें व बांध बनाने के लिए विस्फोटकों का बेरोकटोक इस्तेमाल, असंतुलित विकास, होटलों और बहुमंजिला फ्लैटों, दुकानों, मकानों का अनवरत निर्माण, पहाड़ों की खुदाई और बांध के निर्माण आदि ने पहाड़ों का पेट खोद दिया है। इसमें सरकारी अधिकारियों, राजनीतिज्ञों और निजी बिल्डरों सहित सभी की मिलीभगत है और पूरा समाज इस ओर से आंख बंद किये बैठा है। भूवैज्ञानिकों और समाजसेवियों की चेतावनियों की अनदेखी का ही परिणाम है कि आज हम इस प्राकृतिक आपदा के सामने एकदम असहाय हैं और हजारों निर्दोष लोगों की जीवन लीला समाप्त होते देख रहे हैं। प्रकृति के साथ लगातार बलात्कार करते रहने की वजह से प्रकृति की इस विनाशलीला के जिम्मेदार हम सब हैं।

अब हमें सोचना होगा कि हम यह खिलवाड़ कब तक करते रहेंगे, कब तक विकास की चकाचौंध में फंस कर अपना और अपने बच्चों का जीवन खतरे में डालते रहेंगे।

प्रकृति से खिलवाड़ तो चिंताजनक है ही, हमारे लोकतंत्र के साथ हो रहा सतत खिलवाड़ इससे भी ज्यादा चिंता का विषय है।

इंदिरा गांधी एक सशक्त प्रधानमंत्री थीं। मंत्रिमंडल और पार्टी में उनका विरोध करने वाला कोई नहीं था। सन् 1975 में इंदिरा गांधी ने अपनी गद्दी बचाने के लिए आपातकाल लागू कर दिया था, राष्ट्रपति के अधिकार सीमित कर दिये थे, नागरिक अधिकार स्थगित कर दिये थे, समाचारपत्रों पर सेंसर लागू कर दिया था, लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया था, केंद्र सरकार को किसी भी राज्य में बिना वहां की सरकार से पूछे सेना भेजने का अधिकार दे दिया गया था और देश के सर्वोच्च न्यायालय को अपने इशारों पर नाचने के लिए विवश कर दिया था।

यही नहीं, हमारे संविधान के साथ सबसे बड़ा बलात्कार तब हुआ जब संविधान की प्रस्तावना बदल दी गई, विधायिका के लिए कोरम की आवश्यकता पूरी तरह समाप्त कर दी गई और यह कानून बन गया कि यदि सदन बिलकुल खाली हो और सिर्फ एक ही सांसद उपस्थित हो और वह किसी बिल के समर्थन में मत दे दे तो उस बिल को पूरे सदन द्वारा पारित मान लिया जाएगा। यह तो अच्छा हुआ कि अपने चापलूसों के बहकावे में आकर उन्होंने समय से पहले चुनाव करवा दिये और उनसे त्रस्त जनता ने पहला मौका मिलते ही उन्हें गद्दी से बाहर कर दिया। उनके बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने संविधान के कई संशोधनों को रद्द कर दिया वरना आज भारतवर्ष में लोकतंत्र का नामलेवा भी न रहता।

इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या के बाद सहानुभूति की लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अपने बहुमत को बचाये रखने के लिए दलबदल विरोधी कानून बनवा कर राजनीतिक दल के अध्यक्ष को अनंत शक्तियां दे डालीं। परिणाम यह हुआ कि हमारे देश के राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह के हो गए और पूरा दल ही अध्यक्ष की बपौती बन गया।

नैतिकता का नारा लगाकर, हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवीलाल के सक्रिय सहयोग से और अपनी साफ-सुथरी छवि के कारण विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के सातवें प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन जब उनके अपने ही दल में उनके विरुद्ध विद्रोह पनपा तो डरे हुए प्रधानमंत्री ने लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़ी मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। वे इस खुशफहमी में थे कि दलितों का समर्थन उनकी नैया पार लगाएगा। आरक्षण को मुद्दा बनाकर उन्होंने समाज में विभाजन की गहरी लकीर खींच दी। उनकी लगाई आग से समाज का जलना आज तक जारी है।

हर राजनीतिक व्यक्ति जानता है कि चुनावों में एक ही चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों द्वारा दस-बीस करोड़ का खर्च आम बात है पर हमारे देश का कानून किसी उम्मीदवार को सच बोलने की इज़ाजत नहीं देता। यदि उम्मीदवार अपने चुनाव से जुड़े खर्च का सही हिसाब दें तो वे चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिये जाएंगे। इसे हम लोकतंत्र की एक विसंगति मानकर बर्दाश्त करते चले आ रहे हैं।

नोटबंदी के बाद राजनीतिक दलों को अपने सदस्यों और समर्थकों से चंदा लेने और उसका हिसाब न देने की छूट ने नई विसंगतियां पैदा की हैं। सोशल मीडिया पर विधायकों और सांसदों को सस्ता खाना, मुफ्त यात्रा तथा ऐसी अन्य सुविधाओं की चर्चा है लेकिन राजनीतिज्ञों की संपत्ति और राजनीतिक दलों को मिलने वाली सुविधाओं, चंदे और चुनाव के खर्च पर कोई गहन चर्चा सिरे से नदारद है।

लोकतंत्र के साथ बलात्कार अब भी बदस्तूर जारी है क्योंकि एक अकेला व्यक्ति सरकार चला रहा है, उसके निर्णय से नोटबंदी लागू हो गई, उसके निर्णय से विरोधी दलों के नेताओं पर ही नहीं, सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया घरानों पर छापे डाले जा रहे हैं, उस एक अकेले व्यक्ति के निर्णय से नोटबंदी लागू हो गई। यह मेरा और हम सब भारतवासियों का शोषण है जो हमारी मर्जी के बिना हो रहा है। जी हां, आप और मैं, हम सब भी “मी-टू” में शामिल हैं।

 

[लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं]