समय आ गया है कि हम भारतीय अपनी सरकार की प्रणाली पर एक कठोर नई दृष्टि डालें। सिद्धांतों में कमजोर और हमारी आवश्यकताओं के विपरीत एक शासन प्रणाली के आधार पर भारत समृद्ध व शक्तिशाली महान राष्ट्र नहीं बन सकता…

[भानु धमीजा]

भारतीय शासन व्यवस्था संसदीय प्रणाली के बहुत से अटूट सिद्धांतों का पालन नहीं करती। इसने हमें ऐसी व्यवस्था के हवाले छोड़ दिया है, जो आती-जाती सरकारें अपनी मर्जी के मुताबिक खतरनाक रूप से मोड़ लेती हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अधिकतर भारतीय सरकारें सत्ता मिलने पर आपे से बाहर हो जाती हैं।

संसदीय संप्रभुता

‘संसदीय संप्रभुता’ के सर्वाधिक उत्कृष्ट सिद्धांत पर विचार करें। संसद सर्वोच्च है और सरकार को जिम्मेदार ठहराती है, यह सिद्धांत संसदीय सरकारों का आधार है। अगर यह सिद्धांत प्रभावशाली तरीके से लागू नहीं किया जाए, सरकारें अपने पूरे कार्यकाल के दौरान लोगों के प्रति उत्तरदायी नहीं ठहराई जा सकतीं। इससे संसद होने का संपूर्ण उद्देश्य ही निष्फल हो जाता है। संसद वर्षों से सरकारों पर नियंत्रण खोती जा रही है। यह सिर्फ भारत के साथ ही नहीं हुआ। संसद की जननी ब्रिटेन में भी सरकारों द्वारा सत्ता के अपहरण के विषय में राजनीतिक विज्ञानी लगातार चेतावनी देते रहे हैं। ब्रिटिश संवैधानिक विद्वान सर सिडनी लो ने 1904 में लिखा, ‘‘हाउस ऑफ कॉमन्स अब कार्यपालिका पर नियंत्रण नहीं रखता। इसके विपरीत, कार्यपालिका सदन को नियंत्रित करती है। वह कुछ भी करे कैबिनेट को संसद द्वारा शायद ही पद से हटाया जा सकता है।’’ इसी प्रकार राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर डगलस वर्नी ने 1950 के दशक में चेतायाः ‘‘संसद पर हावी होने की सरकार की प्रवृत्ति संसदीय सिद्धांतों से विपरीत दिशा में जा रही है।’’

इधर भारत में, 1980 के दशक के दलबदल विरोधी कानूनों ने हमारी हालत और भी खराब कर दी। इन कानूनों ने संसद को सचमुच सरकार के अधीन कर दिया। अब सांसद किसी भी मसले पर अपनी पार्टी के खिलाफ वोट नहीं दे सकते। ऐसे में संसद में शर्तिया बहुमत होने पर सरकार को जनता के प्रति कौन जवाबदेह बनाए रख सकता है? पूर्व सांसद अरुण शौरी ने 2017 में लिखाः

‘‘मंत्री परिषद संसद के प्रति जवाबदेह हो और इसके द्वारा नियंत्रित हो, इससे कहीं दूर यह निश्चित रूप से मंत्री परिषद है जो कि अब संसद को नियंत्रित करती है।’’

गैर-दलगत राष्ट्र प्रमुख

संसदीय प्रणाली का एक और आवश्यक सिद्धांत है एक गैर-दलगत राष्ट्र-प्रमुख (head of state) होना चाहिए जो सरकार-प्रमुख (head of government) को निष्प्रभावी कर सके। ब्रिटेन में यह आवश्यकता राजा द्वारा पूरी की जाती है, इसीलिए ब्रिटिश प्रणाली ‘संवैधानिक राजशाही’ के रूप में जानी जाती है।

राजा एक कपटी प्रधानमंत्री के तानाशाह में बदलने के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। ऐसा 1600 के दशक में ओलिवर क्रोमवेल के साथ हुआ भी था। राजा का होना संसदीय प्रणाली में निहित अस्थिरता – एक संसदीय सरकार किसी भी समय गिर सकती है – के लिए भी आवश्यक है। वह जब कोई सरकार न बन सके तो सभी शक्तियों का संग्राहक होता है। परंतु एक अलग राष्ट्र-प्रमुख की आवश्यकता का सबसे अहम कारण है घोर पार्टीबाजी के खिलाफ सुरक्षा। क्योंकि संसदीय सरकार एक पार्टी द्वारा बनाई जाती है, भेदभाव और सांप्रदायिकता असल खतरे बने रहते हैं। राजा इसलिए होना जरूरी है कि वह संपूर्ण जनमानस का प्रत्यक्ष और बिना कोई पक्ष लिए प्रतिनिधित्व करता है। ब्रिटिश संवैधानिक विशेषज्ञ सर इवोर जेन्निंग्स ने लिखा कि ‘‘राजा स्वयं दलगत तो होना ही नहीं चाहिए, उसे दलगत दिखना भी नहीं चाहिए।’’

जब भारत के राष्ट्र-प्रमुख की बात आती है तो इन आवश्यक सिद्धांतों में से सभी तोड़ दिए गए हैं। हमारा राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को पद से नहीं हटा सकता। बल्कि 42वें संवैधानिक संशोधन ने राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री का मातहत बनाकर ठीक उलटा कर दिया है। भारत का राष्ट्रपति लोगों का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व नहीं करता। उसे विधायकों व सांसदों द्वारा चुना जाता है। और वह निश्चित रूप से दलगत होता है:

प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में शेखी बघारी कि कैसे मौजूदा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, और लोकसभा अध्यक्ष सब उनकी पार्टी भाजपा की ‘‘समान विचारधारा और परंपराओं’’ से हैं, और यह देश के लिए अच्छी बात है। वर्ष 2007 में जब सोनिया गांधी ने प्रतिभा पाटिल को भारत के राष्ट्रपति के तौर पर चुना, ‘‘उन्हें गांधी परिवार की कठपुतली’’ के तौर पर जाना जाता था।

प्रतिनिधि सरकार

संसदीय प्रणाली मौलिक रूप से इसलिए तैयार की गई थी ताकि सरकार राजा के बजाय जनता की हो। इस कारण ‘प्रतिनिधि सरकार’ के सिद्धांत का जन्म हुआ कि जनता के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री और एक कैबिनेट की नियुक्ति करें, जो संसद में पार्टियों के मिश्रण के अनुसार हो।

परंतु यह प्रणाली जल्द ही एक कुलीन तंत्र में बदल गई। अल्पमत के लोगों को सत्ता में कोई भागीदारी न देते हुए केवल बहुमत पाने वाली पार्टी ने अपने ही सांसदों को मंत्री नियुक्त किया। और क्योंकि इस कैबिनेट को संसद भंग करने की शक्ति हासिल थी, यह शासन करने वाली एक कोटरी बन गई। ऐसा कार्यकुशलता के नाम पर किया गया ताकि बहुमत की सरकारें बेहिचक शासन कर सकें। परंतु जैसा ब्रिटिश संवैधानिक विद्वान वाल्टर बैजहट ने चेतायाः ‘‘कार्यकुशलता के लिए ठोस बहुमत वोटों की आवश्यकता होती है। इसे विशेष व्यक्तियों के डर द्वारा बनाए रखा जाता है।’’

भारत में कुलीनों – पार्टी आकाओं, प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद की कोटरी – का डर तो और भी अधिक है क्योंकि हमारी प्रणाली प्रतिनिधि सरकार के समस्त आधार नकारती है। जनप्रतिनिधि बनाने के लिए उम्मीदवारों का चयन जनता नहीं, बल्कि पार्टी आका करते हैं। राज्यसभा के लिए सांसदों का चयन पूरी तरह एक या दो पार्टी पदाधिकारियों के नियंत्रण में होता है। संसदीय समितियों में नियुक्तियों का भी यही हाल है। संसद में दलबदल विरोधी कानूनों के चलते सांसद पार्टी आकाओं के लिए रबड़ स्टैंप हैं। परिणामस्वरूप, एजी नूरानी के शब्दों में ‘‘पार्टी आका सबकुछ नियंत्रित करते हैं।’’

आरबीआई के पूर्व गवर्नर और राज्यसभा सांसद विमल जालान ने भी लिखा कि भारत को ‘‘वे सभी संशोधन रद्द कर देने चाहिएं जो निर्वाचित सदस्यों को ‘अक्षम’ बना रहे हैं। इससे भारतीय लोकतंत्र की कार्यप्रणाली कम कुलीनवादी हो सकेगी।’’

भारत का संघवाद का अनूठा प्रयोग

संसदीय सिद्धांतों से सबसे अधिक निर्लज्ज विच्छेद भारत का संघवाद के साथ प्रयोग है। संसदीय प्रणाली एक केंद्र और स्वतंत्र राज्य सरकारों के एक वास्तविक द्वि-स्तरीय ढांचे के लिए अनुपयुक्त है।  संसदीय प्रणाली का मूलभूत विचार केंद्रीय विधायिका द्वारा सारे देश के लिए सरकार नियुक्त करना है। परंतु द्वि-सदनीय विधायिका के साथ ऐसा करने का उसके पास रास्ता नहीं है। हाउस ऑफ कॉमन्स और लार्ड्स दोनों समान प्रधानमंत्री नियुक्त नहीं कर सकते, क्योंकि एक उम्मीदवार एक ही सदन में सांसद हो सकता है। इसी प्रकार संसदीय प्रणाली में अमरीकी सेनेट की तरह ऐसी संस्था का भी अभाव है जो देश की राज्य सरकारों को प्रतिनिधित्व दे सके। संसदीय व्यवस्था में राज्यों के अपने संविधान और न्यायपालिकाएं होने का रास्ता भी नहीं है।

इन और अन्य कारणों के चलते भारतीय संविधान के साहित्यकार ग्रैनविल ऑस्टिन ने लिखा कि भारत में ‘‘किसी ने भी संघवाद और संसदीय प्रणाली की अनुकूलता को चुनौती नहीं दी जबकि भारत के बाहर विचारकों ने ऐसा किया था।’’

समय आ गया है कि हम भारतीय अपनी सरकार की प्रणाली पर एक कठोर नई दृष्टि डालें। सिद्धांतों में कमजोर और हमारी आवश्यकताओं के विपरीत एक शासन प्रणाली के आधार पर भारत समृद्ध व शक्तिशाली महान राष्ट्र नहीं बन सकता।

 

[लेखक ‘दिव्य हिमाचल’ समाचारपत्र के संस्थापक और ‘राष्ट्रपति प्रणाली: कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’ पुस्तक के रचनाकार हैं ]

यह लेख पहले दिव्य हिमाचल 17 अप्रैल 2018 के अंक में प्रकाशित।

Advertisement