पीके खुराना, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक
आखिरकार एक लोकतंत्र केवल तभी सफल हो सकता है, अगर यह लोगों की सूझबूझ में विश्वास करे और उन्हें एकजुट रहने के लिए कारण उपलब्ध करवाए। भारत के लिए यह एक ऐसा लोकतंत्र और अंततः एक सच्चा संघ बनने का समय है। केंद्र और राज्य के संबंधों को लेकर मतदाताओं ने अपनी इच्छा स्पष्ट कर दी है। समय आ गया है कि हमारे विद्वजन, मीडिया और राजनेता भी इस सच को पहचानें, ताकि देश प्रगति की राह पर निर्बाध आगे बढ़ सके…
देश में जब कभी भी चुनाव होते हैं, तो सारा मीडिया और मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग आंकड़ों के विश्लेषण में विशेष रुचि लेता है, क्योंकि आंकड़ों के माध्यम से ही हमें मतदान के रुझानों और मतदाताओं की मंशा का सच जानने को मिलता है। यह सच है कि आंकड़े भी कहानियां कहते हैं और अब हमारे देश में ऐसे विशेषज्ञों की कमी नहीं है, जो आंकड़ों का खुलासा करने में माहिर हैं। आंकड़ों के साथ-साथ घटनाओं का विश्लेषण, परिणामों का विश्लेषण, कारकों का विश्लेषण भी अति महत्त्वपूर्ण है। आंकड़ों, घटनाओं, कारकों और परिणामों का सच जानकर जो फैसले लिए जाते हैं, वे अकसर लाभदायक सिद्ध होते हैं। यही कारण है कि व्यापार में, प्रबंधन में, राजनीति में और राज-काज में इस विश्लेषण की बहुत महत्ता है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के बाद जब बिहार, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में भाजपा को जीत नहीं मिली, तो विद्वजनों ने कहना शुरू कर दिया कि जनता ने मोदी की नीतियों को नकार दिया।
खासकर बिहार विधानसभा चुनावों के बाद तो इस धारणा ने बल पकड़ा और शाह-मोदी की जोड़ी के अप्रभावी होने की चर्चा होने लगी। आंकड़े और घटनाएं निर्जीव हैं, उनका सांगोपांग विश्लेषण उन्हें जीवंत कर देता है। भानु धमीजा ने अपने ताजा लेख ‘भारतीय एक सच्चा संघ चाहते हैं, मिथ्या नहीं’ के माध्यम से एक बार फिर अपनी पैनी नजर का परिचय दिया है। कुछ ही समय पहले प्रकाशित हुई उनकी एकमात्र पुस्तक ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ ने उन्हें विश्वस्तरीय अग्रिम पंक्ति के विचारकों में ला खड़ा किया है। उन्होंने 18 वर्ष अमरीका में रहकर अमरीकी राष्ट्रपति शासन की खूबियों को देखा और उनका विश्लेषण किया। वापस भारत में बस जाने के बाद भारतीय शासन प्रणाली की खामियों ने उन्हें झकझोर दिया और उनका अंतर्मन चीत्कार उठा। तब उन्होंने अमरीकी राष्ट्रपति प्रणाली और भारत में लागू संसदीय प्रणाली की खामियों-खूबियों का विश्लेषण आरंभ किया। भारतीय संविधान सभा के दस्तावेजों का अध्ययन किया और वर्षों के अध्ययन और शोध के बाद उन्होंने अपनी पुस्तक ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ लिखी, जिसे हार्पर-कोलिन्स ने प्रकाशित किया है।
बड़ी बात यह है कि उन्होंने सिर्फ एक किताब लिखकर पल्ला नहीं झाड़ा, बल्कि इसे एक आंदोलन बना दिया है ताकि देश में एक सच्चा जनसंवेदी शासन कायम हो सके। इसी कड़ी में वह शासन-प्रशासन से जुड़े भिन्न-भिन्न मसलों पर लेख लिखकर व सेमिनार आयोजित करके जनजागरण अभियान चला रहे हैं। उनका ताजा लेख ‘भारतीय एक सच्चा संघ चाहते हैं, मिथ्या नहीं’ एक ऐसे सच की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है, जिसे अब तक ठीक से समझा ही नहीं गया था। वह कहते हैं कि राजनेताओं की इच्छा के विपरीत हम भारतीय एक सच्चा संघ चाहते हैं। बिहार, तमिलनाडु तथा पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के चुनाव परिणामों ने यह सिद्ध किया है कि मतदाताओं ने स्थानीय जवाबदेही के लिए वोट दिए। उनके ही शब्दों में कहूं तो-‘इन परिणामों का अर्थ एक मजबूत केंद्र को नकारना या मोदी के पक्ष अथवा विरोध में वोट या राष्ट्रवादी भावनाओं में कमी नहीं है। यह परिणाम लोगों की अपने मसलों को स्वयं नियंत्रित करने की प्राकृतिक इच्छा को दर्शाते हैं। स्थानीय मुद्दों पर स्वायत्तता की मांग, कश्मीर सहित, भारतीय राज्यों में विवाद का हमेशा मुख्य स्रोत रही है। भारत के मौजूदा अस्त-व्यस्त संघवाद ने न केवल इन विवादों को बदतर बना दिया है, इसने शासन को भी भरपूर नुकसान पहुंचाया है।
समय आ गया है कि भारत संघीय सिद्धांतों के सही मायनों और फायदों को पहचाने और एक वास्तविक संघ बनने की दिशा में काम करे।
स्थानीय उत्तरदायित्व की इच्छा ही भारतीय राज्य चुनावों का एकमात्र तर्कयुक्त संदेश है। भारतीय मतदाताओं ने बारंबार यह बुद्धिमता और एक प्राकृतिक समझ दिखाई है कि अंत में सब कुछ स्थानीय शासन ही है। लोगों की सर्वोच्च प्राथमिकता ऐसे स्थानीय नेता तलाशना है, जो कुछ प्रतिबद्धता दिखाते हैं और जिनसे जवाबदेही मांगी जा सकती है। अन्य सभी कारक-विचारधारा, जाति, धर्म, पार्टी लेवल, विरोधी लहर, सेलिब्रिटी राजनेता, प्रचार की गुणवत्ता, केंद्रीय सरकार का नियंत्रण, मोदी के प्रति भावनाएं-सब गौण हैं। जहां एक राज्य के नेता की जवाबदेही स्पष्ट रूप से स्थापित की जा सकती है, लोग सभी प्रकार की घिसी-पिटी परंपराएं तोड़ देते हैं। तमिलनाडु और बंगाल में उन्होंने स्थानीय नेताओं को उनके अच्छे प्रदर्शन क लिए पुनः न चुनने की परंपरा और जाति की भावनाओं को हरा दिया।’
धमीजा के इस तर्क को भी नकारा नहीं जा सकता कि बिहार में, जो जातिगत राजनीति के लिए एक कुख्यात राज्य है, लोगों ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री चुना (जिनकी जाति के महज चार प्रतिशत वोट थे)। दिल्ली में उन्होंने एक अनुभवहीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को दूसरा मौका दिया, क्योंकि उन्होंने राज्य को अनियंत्रित भ्रष्टाचार से उबारने की प्रतिबद्धता दर्शाई। धमीजा फिर दोहराते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कि भारतीय इसके साथ एक मजबूत केंद्र नहीं चाहते। वह इच्छा समान रूप से स्वाभाविक है। वह चाहते हैं कि उनके राष्ट्र की एक मजबूत अर्थव्यवस्था, एक शक्तिशाली सेना, ठोस विदेश संबंध, निष्पक्ष अंतर-राज्यीय व्यवहार और भ्रष्टाचार रहित शासन हो। वहां भी, जब वे प्रतिबद्धतापूर्ण राष्ट्रीय चेहरा देखते हैं, वे उसके और उसकी पार्टी के लिए एकमुश्त मतदान करते हैं। नरेंद्र मोदी और सभी पूर्व ‘मजबूत’ नेताओं-नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ यही हुआ। भारतीय मतदाताओं की इस ‘मजबूत केंद्र, परंतु उत्तरदायी स्थानीय सरकारें’ की मानसिकता के संदेश स्पष्ट हैं। वे केंद्र के लिए मजबूत नेताओं और राष्ट्रीय पार्टियों को वोट देते हैं, लेकिन राज्य सरकारों के लिए स्थानीय नेताओं और क्षेत्रीय पार्टियों को चुनते हैं। यही कारण है कि क्षेत्रीय दल भारत में लगातार पनपते रहे। और यही वजह है कि क्यों केंद्र में मोदी की लोकप्रियता खुद-ब-खुद केजरीवाल, नीतीश, ममता और जयललिता को राज्यों में विस्थापित नहीं कर पाई।
समस्या यह है कि ‘सहयोगी संघवाद’ जिस पर देश इतराता है, केवल नाम का ही है। राज्य केंद्र की मांग के साथ सहयोग करते हैं अथवा इसके परिणाम अच्छे नहीं होते। असहयोगी राज्य सरकारें दंडित होती हैं, उनके कानून मंजूर नहीं होते, उन्हें नए कार्यक्रमों या संस्थानों के लिए नहीं चुना जाता, उनके वैध फंड रोक लिए जाते हैं या उससे भी बदतर, उन्हें राष्ट्रपति शासन के तहत ले आया जाता है। राज्य सरकारों को बहुत अधिक स्वायत्तता, कुछ भारतीयों के लिए एक डरावना विचार है। सच्चाई यह है कि एक विविध देश के लिए, भारत का छद्म-संघवाद केवल इसके क्षेत्रवाद को मजबूत और ज्यादा असहिष्णु बना रहा है। आखिरकार एक लोकतंत्र केवल तभी सफल हो सकता है, अगर यह लोगों की सूझबूझ में विश्वास करे और उन्हें एकजुट रहने के लिए कारण उपलब्ध करवाए। भारत के लिए यह एक ऐसा लोकतंत्र और अंततः एक सच्चा संघ बनने का समय है। केंद्र और राज्य के संबंधों को लेकर मतदाताओं ने अपनी इच्छा स्पष्ट कर दी है। समय आ गया है कि हमारे विद्वजन, मीडिया और राजनेता भी इस सच को पहचानें, ताकि देश प्रगति की राह पर निर्बाध आगे बढ़ सके।
सधन्यवाद: दिव्य हिमाचल
आखिरकार एक लोकतंत्र केवल तभी सफल हो सकता है, अगर यह लोगों की सूझबूझ में विश्वास करे और उन्हें एकजुट रहने के लिए कारण उपलब्ध करवाए। भारत के लिए यह एक ऐसा लोकतंत्र और अंततः एक सच्चा संघ बनने का समय है। केंद्र और राज्य के संबंधों को लेकर मतदाताओं ने अपनी इच्छा स्पष्ट कर दी है। समय आ गया है कि हमारे विद्वजन, मीडिया और राजनेता भी इस सच को पहचानें, ताकि देश प्रगति की राह पर निर्बाध आगे बढ़ सके…