मेरा सवाल यह नहीं है कि राज्यपाल का फैसला तर्कसंगत था या नहीं? मेरा सवाल यह भी नहीं है कि उनका तथा भाजपा नेताओं का आचरण नैतिक था या अनैतिक? मेरा कहना यह है कि हमारा संविधान हमें न केवल अनैतिक आचरण की छूट देता है बल्कि उसके लिए विवश भी करता है…

 

[पी. के. खुराना]

बीएस येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है। उनके अपने दल के 104 विधायक हैं और बहुमत साबित करने के लिए उन्हें आठ और विधायकों की दरकार थी। भाजपा को उम्मीद थी कि सत्ता में आ जाने के कारण वे विपक्षी दलों के कुछ विधायक आराम से तोड़ लेंगे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के दखल के कारण येदियुरप्पा को इसके लिए समय नहीं मिल पाया और अपना बहुमत साबित करने की नौबत आने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन के पास 116 विधायक हैं जो बहुमत की शर्त को पूरा करने के लिए काफी हैं। अब येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद उत्पन्न स्थिति भी कम नाटकीय और रोचक नहीं होगी।

कर्नाटक में किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण बनी स्थिति ने राज्यपाल को अधिकार दिया कि वे अलग-अलग नेताओं के दलों से बात करके अपने विवेकानुसार किसी एक नेता को सरकार बनाने का निमंत्रण दें और उस नेता को अपना बहुमत साबित करने के लिए समय निश्चित करें। चुनाव परिणाम के तुरंत बाद कांग्रेस ने जेडीएस को समर्थन का ऐलान कर दिया और जेडीएस के नेता एचडी कुमारस्वामी ने राज्यपाल से मिलकर अपना दावा भी पेश कर दिया। दूसरी तरफ सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने के नाते भाजपा के नेता येदियुरप्पा ने भी अपना दावा पेश किया और राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया तथा अगले ही दिन मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी, लेकिन आज उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ गया क्योंकि संख्याबल उनके साथ नहीं था।

अब कुमारस्वामी के लिए मुख्यमंत्री बनने की राह तो साफ हो गई है लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि चूंकि कांग्रेस के पास जेडीएस के मुकाबले दोगुने विधायक हैं और मुख्यमंत्री जेडीएस का होगा, तो कांग्रेस हमेशा जेडीएस पर दबाव बनाकर रखेगी। केंद्र में यूपीए के शासनकाल के दौरान जैसे कुछ क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को ब्लैकमेल किया था वैसे ही कांग्रेस भी जेडीएस को ब्लैकमेल करती रह सकती है। यदि ऐसा हुआ तो यह भी कोई आदर्श स्थिति नहीं होगी।

राज्यपाल ने बहुमत प्राप्त गठबंधन के नेता को बुलाने के बजाए सबसे बड़े दल के नेता को अवसर दिया। उन्होंने जो किया, यह उनका संवैधानिक अधिकार तो था, लेकिन यहां भी समस्या यह थी कि जिसे राज्यपाल का विवेक कहा जाता है, वह राज्यपाल का विवेक था ही नहीं। राज्यपाल तो तोता है जो केंद्र की बोली बोलता है। लेकिन ऐसा क्यों है? एक नागरिक के रूप में क्या हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अनैतिकता की विवशता का मूल क्या है? क्या इसमें कोई शक है कि इस अनैतिक आचरण के लिए संवैधानिक व्यवस्था जिम्मेदार है? संविधान में खामी के कारण अगर हमें अनैतिक आचरण करना पड़े या अनैतिक आचरण की छूट मिले, तो भी क्या हमें संविधान की समीक्षा के बारे में गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए?

मेरा सवाल यह नहीं है कि राज्यपाल का फैसला तर्कसंगत था या नहीं? मेरा सवाल यह भी नहीं है कि उनका तथा भाजपा नेताओं का आचरण नैतिक था या अनैतिक? मेरा कहना यह है कि हमारा संविधान हमें न केवल अनैतिक आचरण की छूट देता है बल्कि उसके लिए विवश भी करता है।

कर्नाटक में 104 सीटें जीतने के बाद भाजपा ने दावा किया था कि कर्नाटक की जनता ने प्रदेश की बागडोर संभालने के लिए न तो कांग्रेस में विश्वास जताया और न ही जेडीएस में। भाजपा के अनुसार बहुमत से सिर्फ आधा दर्जन सीटें कम रह जाने को इसी रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि जनता भाजपा को सत्ता सौंपना चाहती थी। हम इस तर्क को सही मान लें तो फिर बिहार के बारे में हम क्या कहेंगे जहां जनता ने भाजपा विश्वास मत नहीं दिया था लेकिन भाजपा चोर दरवाजें से घुस कर सत्ता का आनंद ले रही है और प्रदेश का सबसे बड़ा दल विपक्ष में है? इससे भी बढ़कर दिल्ली में जहां जनता ने भाजपा को सिरे से खारिज कर दिया था और 70 में से 67 सीटें जीत कर भी आम आदमी पार्टी एक उपराज्यपाल की गुलाम है? यह हमारे संविधान की बहुत बड़ी खामी है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उपराज्यपाल के पद की शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए एक विधिवत चुनी हुई सरकार को कठपुतली बना डाला है।

शक्ति किसी को भी भ्रष्ट कर सकती है, पर यह भी सच है कि ऐसा तभी संभव है जब व्यवस्था इसकी अनुमति दे। दुर्भाग्यवश इस मामले में हमारा संविधान बहुत कमजोर साबित हुआ है। केंद्र बहुत शक्तिशाली है और राज्य बहुत कमजोर। दोनों की तुलना ऐसी है मानो एक तरफ कोई शिकारी भेड़िया हो और दूसरी तरफ कुछ खरगोश। केंद्र सरकार की असीमित आर्थिक शक्तियों के कारण भी राज्य सरकारें केंद्र पर निर्भर हैं। पंजाब की पूर्ववर्ती अकाली-भाजपा सरकार तो केंद्र सरकार की सहयोगी थी, अकाली दल प्रतिनिधि केंद्र सरकार में अब भी हैं, उसके बावजूद पंजाब सरकार की आर्थिक हालत इतनी खस्ता थी कि दिसंबर 2015 में खबर आई कि सरकार ने अपने कर्मचारियों को वेतन देने तथा अपना खर्च चलाने के विधवा घरों और जेलों तक को गिरवी रख दिया है।

केंद्र में भाजपा की सहयोगी रही आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी ने कुछ माह पूर्व ही भाजपा से नाता तोड़ा है क्योंकि तेलुगु देशम पार्टी का आरोप था कि केंद्र सरकार अपने वायदे से मुकर रही है और आंध्र प्रदेश को पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं दे रही है। यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि जब केंद्र सरकार में शामिल क्षेत्रीय दलों की सरकारें केंद्र के सामने कटोरा लेकर खड़ी हों तो विपक्ष द्वारा शासित राज्यों की सरकारों का क्या हाल होता होगा।

संसदीय प्रणाली में विपक्ष पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाता है क्योंकि वह न तो कोई कानून बनवा सकता है न किसी कानून को रुकवा सकता है। बहुमत के बल पर सत्तासीन दल अपनी मनमर्जी करता है। किसी बिल पर मतदान से पहले ही हमें पता होता है कि मतदान का परिणाम क्या होगा, यही कारण है कि बिलों पर मतदान एक औपचारिकता मात्र है और बहुत बार कई महत्वपूर्ण बिल बिना किसी बहस के चार-चार, पांच-पांच मिनट में ही पास कर दिये गए।

हमारे संविधान में बहुत सी खामियां हैं जो समाज को कमजोर कर रही हैं। यही कारण है कि आज देश भर में इस बात पर बहस चल रही है कि हम संसदीय प्रणाली वाला यह लचर संविधान जारी रखें या फिर अमरीकी तर्ज का राष्ट्रपति प्रणाली का संविधान अपनायें अथवा कोई बीच का रास्ता खोज कर मिश्रित प्रणाली का संविधान लागू करने की तरफ कदम बढ़ाएं।

इस संविधान में सौ से भी अधिक संशोधन हो चुके हैं लेकिन अब यह संविधान देश को सशक्त बनाने के बजाए कई मामलों में पीछे ले जा रहा है। संविधान की कई मूलभूत खामियों के चलते देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। हम नैतिक पतन की ओर बढ़ रहे हैं। निश्चय ही खुले दिमाग से की गई संविधान समीक्षा ही हमें नैतिकता के वर्तमान संकट से छुटकारा दिला सकती है, वरना हम ऐसे संकट झेलते और कुढ़ते रहेंगे। अब समय आ गया है कि हम अंधेरे को गाली देना बंद करें और दीपक जलाएं।

 

[लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं]

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