भारत के संविधान में नियंत्रणों व संतुलनों की परिकल्पना शुरुआत से ही खराब ढंग से की गई। और उनके तथाकथित सुधारों ने मामले को केवल और अधिक बिगाड़ा ही है…

(भानु धमीजा)

किसी देश के संविधान का प्राथमिक उद्देश्य एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना है। ऐसा अकसर शासन की स्वतंत्र संस्थाओं की स्थापना कर, उन्हें सु-परिभाषित जिम्मेदारियां सौंप, विशिष्ट शक्तियां देकर, और उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह बनाकर किया जाता है। उत्तरदायित्व समय-समय पर होने वाले चुनावों और आंतरिक ‘नियंत्रणों व संतुलनों’ के माध्यम से तय किया जाता है। हमारे संविधान में इन नियंत्रणों व संतुलनों की परिकल्पना शुरुआत से ही खराब ढंग से की गई। और उनके तथाकथित सुधारों ने मामले को केवल और अधिक बिगाड़ा ही है।

विधायी निगरानी

सर्वाधिक मूलभूत नियंत्रण, सरकार पर विधायिका के कंट्रोल, पर जरा विचार करें। बीआर अंबेडकर ने इसे हमारे संविधान की सबसे महान मजबूतियों में से एक के तौर पर प्रस्तुत किया था। संविधान सभा में अपने विख्यात ‘उत्तरदायित्व बनाम स्थिरता’ संबोधन के दौरान उन्होंने कहा कि ‘‘एक संसदीय सरकार को उसी क्षण इस्तीफा दे देना चाहिए, जब वह सांसदों का बहुमत खो दे।’’ ऐसे में हमारी सरकारें कम स्थायी हो सकती हैं, परंतु वे अधिक उत्तरदायी होंगी। ‘‘कार्यपालिका के उत्तरदायित्व का मूल्यांकन दैनिक और निरंतर अंतराल, दोनों प्रकार से होता है,’’ अंबेडकर बोले। ‘‘दैनिक मूल्यांकन सांसद प्रश्नों, प्रस्तावों, अविश्वास प्रस्तावों, स्थगन प्रस्तावों और चर्चाओं के माध्यम से करते हैं…अंतराल आधारित मूल्यांकन जनता द्वारा चुनाव के समय किया जाता है।’’

सरकार की ऐसी विधायी निगरानी की अव्यावहारिकता आसानी से दिखती है। संसदीय व्यवस्था में सांसदों से अपेक्षा की जाती है कि वे सरकार के संपूर्ण प्रदर्शन का दैनिक आकलन करें। और अगर सरकार को गैर जिम्मेदार पाया जाए, तो सांसदों से उम्मीद होती है कि वे इसे तुरंत सत्ता से हटाने के लिए सहमत और सक्षम होंगे। केवल यही नहीं, बहुसंख्यक सांसदों से संसद में अपने ही कार्यकाल का अंत करने की अपेक्षा की जाती है, क्योंकि ‘सरकार गिराने’ का विशिष्ट अर्थ तो यही है।

इसीलिए हमारे इतिहास में केवल एक ही सरकार मतदान के जरिए सत्ता से हटाई गई, वह थी 1990 में वीपी सिंह की गवर्नमेंट। कई सरकारें कार्यकाल से पहले गिरी हैं, परंतु ऐसा केवल सांसदों द्वारा राजनीतिक दल बदलने या पार्टी सुप्रीमो के गठबंधन बदलने के कारण हुआ। इस प्रकार भारतीय सरकारों में अस्थिरता की एक बड़ी समस्या बन गई।

यह बीमारी ठीक करने के लिए अपनाए गए इलाज, 1980 के दशक के दलबदल विरोधी कानून, ने विधायी निगरानी से संबंधित स्थिति को और बिगाड़ दिया। अब सांसद किसी भी चीज पर अपनी पार्टी की इच्छा के विपरीत वोट नहीं दे सकता, अविश्वास प्रस्तावों की तो बात ही छोडि़ए। चाहे एक सरकार जितनी भी गैर जिम्मेदार हो, उसके पास अब संसद में शर्तिया बहुमत का समर्थन होता है।

जहां तक सरकार के व्यवहार की दैनिक निगरानी की बात है, सांसद शशि थरूर ने 2017 में बेहतरीन कहा: ‘‘इस धारणा कि हमारी प्रणाली सरकार के ‘उत्तरदायित्व की दैनिक समीक्षा करती है,’ पर हंसी आएगी, अगर पिछली संसदों में व्यवधानों और स्थगनों का प्रदर्शन देखें।’’

राष्ट्रपति का नियंत्रण

भारतीय सरकार पर राष्ट्रपति के नियंत्रण की कहानी भी समान है। संविधान ने हमारे राष्ट्रपति को सरकार के शीर्ष पर स्थापित किया है, परंतु यह उल्लेख करने में विफल रहा कि इस पद को आखिर क्या शक्तियां हासिल हैं। राष्ट्रपति की शक्तियों के विवरण से संबंधित एक अनुदेशपत्र का वचन संविधान सभा में दिया गया था, परंतु इसे संविधान में कभी नहीं जोड़ा गया।

भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद अपनी शक्तियों की वास्तविकता जानने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से एक दशक तक भिड़ते रहे। पहले ही साल में एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया, जब नेहरू ने इस मनमुटाव पर त्यागपत्र की धमकी दी। वर्ष 1957 में डा. प्रसाद ने मसला सार्वजनिक कर दिया यह तर्क देते हुए कि संविधान ने राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह नामंजूर करने की शक्ति दी है। डा. प्रसाद के विचारों को 1963 में कुछ समर्थन मिला, जब भारतीय संविधान सभा के वरिष्ठ सदस्य केएम मुंशी ने यह विवरण देते हुए पुस्तक लिखी कि संविधान निर्माताओं का इरादा केवल नाम का ही राष्ट्रपति बनाना नहीं था।

राष्ट्रपति द्वारा किसी सरकार को नियंत्रण में रखने की कोई भी उम्मीद हालांकि 1976 में ध्वस्त हो गई, जब इंदिरा गांधी के 42वें संशोधन ने राष्ट्रपति पद को संपूर्णता से शक्तिहीन बना डाला। संविधान का 74वां अनुच्छेद बदल दिया गया, यह बंधन लगाते हुए कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह के अनुरूप ही ‘‘कार्य करेगा।’’ उसके बाद आने वाली जनता सरकार ने इस भयावह प्रावधान को निरस्त करने को कुछ नहीं किया। इसने राष्ट्रपति को केवल प्रधानमंत्री से एक बार पुनर्विचार को कहने का अधिकार दिया, जिसके बाद राष्ट्रपति को वही करना होगा जो कहा जाए।

मूल संविधान की यह विकृति अभी भी मौजूद है। नानी पालकीवाला, विख्यात संवैधानिक विद्वान ने लिखा कि इंदिरा गांधी के संशोधन ने ‘‘संविधान के मूल ढांचे को नष्ट कर दिया।’’ इसी प्रकार ग्रैनविल ऑस्टिन, संविधान के प्रसिद्ध इतिहासकार ने दर्ज किया कि ‘‘नए संविधान में शक्ति के संतुलन में आए परिवर्तन ने इसे पहचान के काबिल नहीं छोड़ा।’’

परिणामस्वरूप एक भारतीय राष्ट्रपति की स्थिति आज हास्यास्पद है। राष्ट्रपति ‘‘मदद और सलाह के लिए’’ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्री परिषद का सृजक है, लेकिन राष्ट्रपति को स्वयं उस सलाह के अनुरूप काम करना होता है। ऐसे में ‘सलाह’ और ‘आदेश’ में फर्क क्या है? इस प्रणाली ने एक नियुक्ति करने वाले प्राधिकारी को इसके ही अधिनस्थों का अधिनस्थ बना डाला है। इसी प्रकार संविधान समस्त कार्यकारी शक्तियां और सेना का नेतृत्व राष्ट्रपति में समाहित करता है, परंतु फिर उससे प्रधामनंत्री के कहे अनुसार काम करने को बाधित करता है। ऐसे में सरकार या सेना का नेतृत्व कौन कर रहा है? आज संविधान के तर्क बिलकुल बेतुके हो चुके हैं।

न्यायिक निगरानी

केवल न्यायपालिका ने भारतीय सरकारों को निंयत्रित रखने में कुछ बेहतर प्रदर्शन किया है, पर इसका श्रेय संविधान को नहीं जाता। मूल संविधान ने सरकार को संविधान बदलने, या अपनी पसंद के अनुरूप न्यायाधीश नियुक्त करने की स्वतंत्रता दी थी।

आरंभिक वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने दो बार, संकरी प्रसाद (1951) और सज्जन सिंह (1965) केस में पाया कि संसद की संशोधन संबंधी शक्तियों पर कोई रोक नहीं है। परिणामस्वरूप संविधान की समस्त आधिकारिक समीक्षाओं – प्रथम संशोधन (1951), चतुर्थ संशोधन (1954), और 42वां संशोधन (1976) – ने मूल संविधान को बाइपास करने के रास्ते ही निकाले। यह केवल 1973 के केशवानंद केस में हुआ कि सरकार की शक्तियों को सीमित करते हुए कोर्ट ने मूल ढांचे का सिद्धांत लागू करने की शुरुआत की।

परंतु न्यायालय ने स्वयं अपनी प्रधानता स्थापित कर ली। संविधान किसी भी विशेषता की व्याख्या ‘‘मूल’’ के रूप में नहीं करता। आज कोर्ट मूल ढांचे के सिद्धांत और इसकी परिभाषाएं मनमानी से करता है। न्यायाधीश हर व्यक्तिगत पसंद को संविधान में ‘‘मूल’’ के तौर पर शामिल करते हैं, जैसे कि एक कल्याणकारी राज्य; अवस्था और अवसर की समानता; एक समतावादी समाज; मूलभूत अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों में संतुलन; समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, आदि।

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ तो इस असंगत बयान तक जा पहुंचे कि ‘‘मूल ढांचे की परिकल्पना हर मामले में अलग-अलग रूप से विचार में लाई जानी चाहिए…’’

जहां तक न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर सरकार की शक्ति सीमित करने की बात है, कोर्ट ने वर्ष 1993 में उस यह अधिकार भी स्वयं ले डाला। अब भारत में गोपनीयता में न्यायाधीश नियुक्त करने की प्रणाली है। उनकी नियुक्ति या उनके कार्य प्रदर्शन की कोई सार्वजनिक समीक्षा ही नहीं होती। भारत की सरकारें अव्यवस्थित और बेतुके नियंत्रणों के चलते कभी उत्तरदायी नहीं बन सकतीं। एक महान राष्ट्र के लिए यह उपयुक्त नहीं है।

 

[लेखक ‘दिव्य हिमाचल’ समाचारपत्र के संस्थापक और ‘राष्ट्रपति प्रणाली: कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’ पुस्तक के रचनाकार हैं ]

यह लेख पहले दिव्य हिमाचल 14 फरवरी 2018 के अंक में प्रकाशित।

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