लोगों की रुचि नियुक्ति में नहीं, न्याय में है
( भानु धमीजा लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं, प्रस्तुत लेख इस पुस्तक पर आधारित है )
भारत के लोग न्याय की चाहत के कारण कष्ट झेल रहे हैं, लेकिन हमारे नेता अभी तक यही निर्धारित नहीं कर पाए हैं कि जजों की नियुक्ति कैसे की जाए। सुधार के तौर पर पुरानी पद्धतियों में बदलाव के बजाय भारत को अमरीकी पद्धति अपनाने बारे विचार करना चाहिए। यह पद्धति न्यायिक पुनरावलोकन शक्तियों के पृथक्करण, जवाबदेही और विकेंद्रीकरण के मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है। इसे दो शताब्दियों से ज्यादा वक्त तक परिशोधित किया गया था और यह कार्य निष्पादन के लिए जानी जाती है। अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट’ के ‘कानून का शासन सूचकांक 2015’ के अनुसार 102 देशों की सूची में अमरीका को 19वां स्थान हासिल हुआ, जबकि भारत इसमें 59वें पायदान पर रहा।
इसे एक दयनीय स्थिति ही माना जाएगा कि संविधान को लागू किए जाने के 65 वर्षों के पश्चात भी देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति का कोई उचित मानदंड निर्धारित नहीं हो सका है। यह हमें बताता है कि भारतीय शासन तंत्र में शक्तियां गंभीर व अपरिवर्तनीय रूप से असंतुलित हैं। इसमें संवैधानिक विसंगतियां हैं, जैसे कि संसदीय सर्वोच्चता और न्यायिक पुनरावलोकन साथ-साथ चलते हैं। परिणामस्वरूप देशवासी इससे पीडि़त हैं। इस व्यवस्था से या तो बहुमत का अत्याचार सामने आता है अथवा अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार। जजों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया को न्यायपालिका द्वारा नकारे जाने के बाद अरुण जेटली ने इसे ‘अनिर्वाचितों का अत्याचार’ बताया था। कुछ दिन पूर्व एक राष्ट्रीय टीवी चैनल पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के विषय पर बहस प्रसारित हो रही थी, जिसमें एक सहमति दिखी। यह व्यवस्था की सुदृढ़ता पर केंद्रित नहीं थी, बल्कि इस बात पर थी कि यह किस कद्र क्षत-विक्षत हो गई है। भारत में बिना विधायिका व कार्यपालिका की निगरानी के ‘न्यायाधीशों को न्यायाधीशों द्वारा’ नियुक्त किए जाने की व्यवस्था है। जब 1993 में इस व्यवस्था को अपनाया गया था, लगभग तभी से लेकर न्याय की कुशलता और गुणवत्ता गर्त में पहुंच गए। सरकार का नेतृत्व करते हुए जेटली ने मौजूदा तंत्र को ‘जिमखाना क्लब’ करार दिया है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा ने भी इस संदर्भ में कहा था, ‘कालेजियम में पारदर्शिता का अभाव सबसे बड़ी समस्या रही है।’
इस बात को लेकर कोई शंकित नहीं होगा कि भारत का वर्तमान न्याय तंत्र अपेक्षित परिणाम दे पाने में विफल रहा है। वर्ष 1999 में भारतीय संविधान के अध्येता ग्रैनविल्ले ऑस्टिन ने कहा था, ‘भारतीय जेलों में बंद करीब 70 फीसदी कैदी मुकदमा शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं।’ 2011 में स्वयं सरकार ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि देश भर में करीब 3.2 करोड़ मामले अदालतों में लंबित पड़े हैं और इनमें से करीब 26 फीसदी मामले पांच वर्षों से अधिक समय से लटके हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय में भी करीब 56 हजार मामले लंबित पड़े हुए थे। गुणवत्तायुक्त न्याय में विफलता का एक बड़ा गुनहगार भ्रष्टाचार को माना जाता रहा है। एक विलक्षण मामले में देश के कानून मंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय को शपथ पत्र के जरिए यह बताया था कि उनकी जानकारी के अनुसार देश के 16 में से आठ मुख्य न्यायाधीश ‘निश्चित तौर पर भ्रष्ट’ हैं। लेकिन खुद की सीमाओं का अतिक्रमण करने में भारतीय न्यायालयों को काफी तेज माना जाता है। जनहित याचिकाओं के जरिए उन्होंने खुद को अप्रत्याशित शक्तियां और कार्यकारी अधिकार सौंप लिए हैं।
भारतीय कार्यपालिका और न्यायपालिका के संघर्ष का एक लंबा इतिहास है। न्यायपालिका पर कार्यपालिका के नियंत्रण की शुरुआत संविधान अपनाने के दो दशकों के बाद से ही हो गई थी। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के दो सर्वोच्च पदाधिकारियों, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की शक्तियों की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई। इसके कारण तंत्र शीघ्र ही अधोगति की ओर बढ़ता गया। लिहाजा प्रधानमंत्री ने मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की विशिष्ट शक्ति अपने हाथ में ले ली और राष्ट्रपति को केवल उनकी सलाह का पालन करना होता है। 70 के दशक के शुरू में इस व्यवस्था ने इंदिरा गांधी को न्यायालयों में अपनी पसंद के न्यायाधीश नियुक्त करने की सहूलियत दे दी। ‘न्यायाधीशों के दमन’ की ऐसी ही एक प्रसिद्ध घटना में उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर ऐसे व्यक्ति को नियुक्त कर दिया, जो कि वरिष्ठता के आधार पर चौथे स्थान पर था। इसके बाद आपातकाल भी लागू हुआ। ऐसा ही चलन 1980 में भी जारी रहा। दूसरे कार्यकाल में इंदिरा ने मिनरवा मामले में सरकार की हार के प्रतिशोध में बड़ी बेशर्मी के साथ न्यायाधीशों का तबादला कर दिया था। कमोबेश यह संकट कालेजियम व्यवस्था के साथ भी जारी रहा। इसके जरिए भी मूल समस्या का समाधान नहीं हो सका। एकमात्र संस्थान, जो कि इस समय न्यायपालिका है, ने अब भी न्यायाधीशों की नियुक्ति का एकमेव नियंत्रण खुद के हाथों में रखा हुआ है। इस समस्या के निदान के तौर पर केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की व्यवस्था भी कमजोर साबित हुई है। इसके जरिए भी जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के बजाय इस प्रक्रिया को कुछ लोगों के हाथों से निकालकर ऐसे ही एक अन्य समूह के हाथों में थमा देने की तैयारी की गई थी।
अमरीकी न्याय तंत्र का खाका तैयार करते वक्त उसमें जवाबदेही का गुण सम्मिलित किया गया था। थॉमस जैफर्सन ने इस खाके के मूलभूत सिद्धांतों की व्याख्या की थी, ‘न्यायपालिका को हर सूरत में कार्यपालिका और विधायिका के दखल से मुक्त रखते हुए दोनों को एक-दूसरे से स्वतंत्र रखा जाना चाहिए, जिससे कि दोनों में नियंत्रण स्थापित किया जा सके।’ सरल भाषा में कहें तो शक्तियों का पृथक्करण तभी प्रभावी हो पाएगा, जब इन संस्थानों को पूरी तरह से अलग रखा जाए, ताकि ये एक दूसरे पर नियंत्रण रख सकें। अमरीका के संविधान ने न्यायपालिका को राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र और कांग्रेस से बिलकुल अलग स्थापित किया है। अनुच्छेद-तीन कहता है, ‘अमरीका की न्यायिक शक्ति एक सुप्रीम कोर्ट में निहित होगी। समय-समय पर कांग्रेस निचले न्यायालयों की विधिवत स्थापना कर सकती है।’ यह प्रावधान जनप्रतिनिधियों को न्याय तंत्र के प्रति जावबदेह बनाता है। प्रांतों की सरकारें अपनी न्यायपालिका में नियुक्तियों के लिए स्वतंत्र होती हैं। यह प्रावधान एक ऐसे विकेंद्रीकृत तंत्र को तैयार करता है, जिसमें प्रांतीय सरकारों की जवाबदेही तले स्थानीय मामलों को स्थानीय अदालतों में ही निपटा लिया जाता है।
अमरीका ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की शक्तियों का राष्ट्रपति और सीनेट के बीच एक समन्वित विभाजन किया है। राष्ट्रपति मनोनीत करता है और सीनेट इसे अंतिम मंजूरी देती है। प्रांतों की सरकारों को अपनी इच्छानुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति की स्वतंत्रता है। कुछ प्रांतों द्वारा विधायिका व कार्यपालिका में सत्ता का विभाजन किया जाता है। शेष प्रांत विधायिका को नियुक्तियों की इजाजत देते हैं। यहां तक कि कुछ राज्यों में जनता सीधे चुनाव से न्यायाधीशों की नियुक्ति करती है।
ऐसी ही व्यवस्था की आज भारत को भी जरूरत है। इसे तैयार निवाले की तरह नहीं अपनाया जा सकता, लेकिन फिर भी इस दिशा में सुव्यवस्थित प्रयास करने के बहुत सारे कारण मौजूद हैं। ब्रिटिश प्रणाली की लंबे समय तक नकल करने के बाद आज हम यह तर्क नहीं दे सकते कि एक ‘विदेशी प्रणाली’ को नहीं अपनाया जा सकता।